विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी की अजमेर शाखा द्वारा आज दिनांक 4 मई तक कोरोना वायरस के कारण दीन एवं
आज बच्चों में मोबाइल टीवी और सोशल मीडिया के प्रति इतनी सक्रियता हो चुकी है कि उन्हें बाहर के मैदानी खेल खेलने में रुचि ही नहीं बची जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है। बच्चों को कम से कम दो घंटा मैदानी खेल अवश्य खेलने चाहिए क्योंकि इससे हमारा शरीर एवं मन तरोताजा बनता है जिससे हमारे मस्तिष्क की क्षमता जैसे एकाग्रता, स्मरणशक्ति आदि का विकास होता है।
संस्कारवान एवं सशक्त नारी ही समर्थ समाज और विकसित राष्ट्र का आधार हो सकती है। इसके लिए देश के प्राचीन गौरव और संस्कारों के प्रति निष्ठा एवं आधुनिक समाज व्यवस्था के साथ तालमेल सीखने की आवश्यकता है। भारतीय जीवन में स्त्री ही मूल्यों एवं परंपराओं को आधुनिकता के साथ जोड़ने की महत्वपूर्ण कड़ी है किंतु फैशन की चकाचैंध में उसका यह नैसर्गिक गुण प्रकट नहीं हो पा रहा है।
समाज में समय-समय पर जो विकृतियां आ जाती है, उसके निवारण का उपाय आध्यात्म ही है। न्यायपालिका व कार्यपालिका की कार्य प्रणाली विज्ञान और आध्यात्म के सामांजस्य पर ही निर्भर करती है। कालान्तर में समाज में उत्पन्न विकृतियों के निवारण हेतु कानूनी उपायों के साथ साथ समाज में जीवन मूल्यों की पुनः प्रतिस्थापना भी आवश्यक है।
नगर प्रमुख अखिल शर्मा ने बताया कि इस अवसर पर गीता पर आधारित प्रश्नोत्तरी का संचालन महर्षि दयानन्द सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर के योग विभाग के डाॅ0 लारा शर्मा ने किया।
भगवत गीता का पारायण युवावस्था से ही प्रारंभ होना चाहिए। गीता में जीवन जीने की कला भगवान श्रीकृष्ण ने बताई है, और यह हर व्यक्ति को अपने युवा काल में ही ज्ञात होनी चाहिए। भगवत गीता में आज के व्यक्तिगत और सामाजिक हर समस्या का समाधान है।
बचपन से जिन संस्कारों को मानव अपनी आदतों में ढाल लेता है वही संस्कार उसका स्वभाव बन जाते हैं। अच्छी आदतों को किशोरावस्था में ही अंगीकार कर लिया जाता है तो पूरा जीवन सफल और प्रभावी हो जाता है। जीवन में प्रोएक्टिव होना अर्थात पहल करना। जब हम अंतिम लक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए कार्य करना सीखने लगते हैं तो कार्य की समझ, दूसरों के दृष्टिकोण का अनुभव तथा समूह में मिलकर कार्य करने जैसे गुण स्वमेव ही विकसित होने लगते है।
जीवन में सफलता अर्जित करने के लिए प्रत्येक पल महत्वपूर्ण है। समय के पूर्ण नियोजन से ही सबकुछ प्राप्त हो सकता है। विवेकानन्द केन्द्र के संस्थापक एकनाथ रानडे के जीवन को देखते हुए जब हम नियोजन की बात करते हैं तो यह नियोजन इस रूप में हो कि जैसे हम कभी मरने वाले ही नहीं है किंतु जब इस पर क्रियान्वयन की बात आए तब ऐसा भाव हो कि हमारे पास केवल एक ही दिन है और वह है आज।