विवेकानंद केंद्र शाखा बिलासपुर छत्तीसगढ़ में माननीय किशोर जी अखिल भारतीय सह सचिव विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी की गरिमामई उपस्थिति में प्रार्थना अभ्यास वर्ग का आयोजन २२ मई को किया गया,
उन्होंने बताया की जैसे जैसे हमारे कार्यकर्ता रूपी समझ विकसित होता है ( एस वी ग्रो इन अंडरस्टेंडिंग ) वैसे वैसे प्रार्थना हमको एक नया अर्थ देती है । संस्कृत की सुंदरता है जिस डायमेंशन से जितनी समझदारी से उसके अर्थ को समझते हैं और एक नया अर्थ हमको प्राप्त होता है और इस दृष्टि से प्रार्थना का महत्त्व है कि कार्यकर्ता स्टेटिक होता है प्रार्थना का अर्थ भी स्टेटिकली होता है हमजो बोलेंगे वह सर्वार्थ हो गया ऐसा नहीं है सर्वथा है ऐसा भी नहीं बोल सकते ।यह हमारे समझ पर निर्भर है ।आप जैसे जैसे उसके अलग-अलग आयामों को देखेंगे हम अपने समाज की दृष्टि से समझ रहे हैं लेकिन मनुष्य निर्माण से राष्ट्र का पुनरुत्थान इस संगठन का लक्ष्य है भी है तो राष्ट्र का पुनरुत्थान की प्रक्रिया तो बहुत बड़ी प्रक्रिया है और उस प्रक्रिया को समग्रता से समझना यह आज भले ही हमको संभव नहीं लग रहा है । इस राष्ट्र की पुनरुत्थान की प्रक्रिया को हम समग्रता से समझें किसी ने ऐसा समझा उसने हमको समझाने का प्रयास किया । स्वामी विवेकानंद जी ने इस प्रक्रिया को समझा था किसी देश के पुनरुत्थान के कारण क्या हो सकते हैं तो उन्होंने पतन के कारण का कभी विश्लेषण किया जिजिससे उनके ध्यान में आया - (1) देश में संगठन शक्ति का अभाव है, (2) दूसरा एक आत्मविश्वास चाहिए जो लोगों में आत्मविश्वास की कमी है, (3) तीसरा कारण उन्होंने देखा कि नारी शक्ति को जो सम्मान मिलना चाहिए वह सम्मान नहीं है और उसके कारण हम इस पतन के मार्ग पर चल पड़े ।, (4) चौथा कारण यह था कि माना मानव की रेखाएं खुल गई हैं और सहिष्णुता वाला बात । यह 4 महत्वपूर्ण विषय उस पतन के कारण मीमांसा में रखते हैं ।
अब राष्ट्र के पुनरुत्थान को लक्ष्य करके अगर प्रार्थना का निर्माण किया है माननीय एकनाथ जी की जो एक वृहद सोच रही है तो हमको उनके साथ एकाकार होना पड़ेगा । माननीय एकनाथजी के उस सोच के साथ हमको एकाकार होना पड़ेगा तब जाकर उनके इस प्रयास को हम समझ पाएंगे कि किस उद्देश्य से इस प्रार्थना का निर्माण किया होगा, इसकी आवश्यकता को उन्होंने महसूस किया होगा और फिर शब्द रूप किया होगा और जो संस्कृत के श्रीधर भास्कर वर्णेकर विद्वान थे उन्होंने इसकी रचना की, लेकिन सोच तो एकनाथजी की थी। इसलिए एकनाथ जी को सोचकर और यह इसको दो-तीन साल लग गए इसको गढ़ने में - योग्य स्थान पर योग्य शब्द हो इस दृष्टि से । अब यह लोगों के सामने जब पहली बार 76 में आया जैसा कि जानते हैं 72 में केंद्र की शुरूआत हुई 76 में प्रार्थना आई 4 साल लगे । इस 4 साल में इसका मूर्त रूप हमने देखा और उसमें से भी जब जीवनव्रती प्रशिक्षण चल रहा था, प्रशिक्षण काल में खुद वर्णेकरजी ने भावार्थ तथा शब्दार्थ समझाया था, इस प्रार्थना का होने के कारण प्रत्येक शब्द के आधात और बोलने का सही तरीका उच्चारण की शुद्धता की दृष्टि से क्योंकि यदि उच्चारण की शुद्धता को दरकिनार करते जाए तो अनेक अर्थ निकल सकते हैं, किसी शब्द के उच्चारण में स्पष्टता और शुद्धता आवश्यक है इसलिए उसका ध्यान रखना आवश्यक हे । हम इसके बहुत शब्दार्थ में नहीं जाएंगे, हमको इसके भावार्थ में जाना है, जैसे इसके संकेतों से देखेंगे बाकी वृहद शब्द व्याख्याएं ध्येय मार्ग किताब में देखेंगे आप लोग बाद में । प्रार्थना सामूहिकता का प्रतीक है, प्रार्थना इसमें जो भी कुछ कहा है वयं वाला कहां है, नूनम वाला कहां है, यह वयं वाला सोच है, इसमें जब समाज को सामने रखकर इस प्रार्थना की रचना की होगी, समग्र समाज का चिंतन भी इसमें निहित है । तो समग्र समाज का हित क्या हो सकता है? - देश की वैभव की स्थिति की कल्पना देश अपने चरम पर कब बैठेगा ? स्वामी जी का एक कथन हैं - मैं स्पष्ट देख रहा हूं, भविष्य पर मेरा विश्वास नहीं है मैं चिंतन करता हूं कि भारतमाता स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान होने जा रही है, यह दृश्य मैं अपनी आंखों के सामने स्पष्ट देख रहा हूं । यह जो विराजमान होने का स्वप्न स्वामी विवेकानंद स्पष्ट देख रहे थे तो इससे समाज का वर्णन है भारतमाता का स्वर्णिम सिहासन पर विराजमान होना मतलब प्रत्येक व्यक्ति इस देश का उन्नत होना यह स्वप्न है उनका । इससे राष्ट्र का पुनरुत्थान तब संभव है जब मनुष्य निर्माण की प्रक्रिया का प्रतिमान होना संभव है, तब उसके प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति का, आकांक्षा के रूप में समस्त समाज को उन्नत करना। यह आह्वानात्मक हैं : मतलब उस श्रेष्ठ की प्राप्ति अपने स्वयं की अर्चना से करेंगे । तो भगवान की फूल चढ़ाकर या दीपक जला कर या घंटी बजा करजो पूजा करते हैं, उसमेंभी समाज को ईश्वर मानकर अपने कर्मों से स्व कर्मणा - अपने कर्म से उसकी पूजा हम करें राष्ट्र आराधन । इस राष्ट्र का समाज के रूप में सामूहिकरूप का हमारा आराधना हो ।
जो जीवन अधिकाधिक देने की पहल करेगा वह जीवन सार्थक जीवन कह लाएगा । जो सामूहिकता पर विश्वास करता है वही ऐसा कर सकता है । मैं के विलय के द्वारा सामूहिकता की स्थापना संभव है निस्वार्थ भाव से भी अधिक देना संभव है उदाहरण मां का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण प्रकृति रही प्रदानम् अधिक करती है । मनुष्य अपनी बुद्धि के कारण मैं मेरा और स्वार्थ के कारण वह अधिक प्रधान का स्वभाव नहीं कर पाता । तीसरा अपनी आवश्यकताओं को कम करके भी अधिक प्रदान की स्थिति पाई जा सकती है , एक घटना का उद्धरण देते हुए बताया प्रशिक्षण के बाद एक कार्यकर्ता को गुजरात भेजा गया पास में 400 से ₹500 थे, इसमें जीवन चलाना कठिन था तो उन्होंने अपने आवश्यकता को कम करना प्रारंभ किया और यदि हम इतिहास देखें तो सारे महान पुरुष जितने भी महापुरुष हुए उनकी आवश्यकताएं सीमित थी। प्रदानम् अधिकम सफलता का मापदंड है ।
जैसे हम प्रार्थना का अर्थ समझेंगे बोलने में हम परिपक्व होंगे एक व्यवस्थित कार्यकर्ता कैसे खड़ा हो इस में प्रार्थना का बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है । कार्यकर्ता चाहे जिस भी स्थिति में हो भले ही हताश अथवा निराश हो लेकिन प्रार्थना उसको उभारने में मदद करेगी । उपरोक्त सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इस दृष्टि में इसे समझने में सहायता होगी।